चार पैसे दान में बस क्या दिए हैं |
शहर भर में पोस्टर टंगवा दिए हैं ||
अब के होगी जीत पक्की ही हमारी |
बस्ती में दारू के ड्रम खुलवा दिए हैं ||
ये बशर जो सच के पर्चे बांटता था |
हाथ इसके आज ही कटवा दिए हैं ||
जब भी पूछा क्या किया है ज़िंदगी में |
बस ज़रा सा हौले से मुस्का दिए हैं ||
आज आमद है किसी लीडर की शायद |
रास्तों पर फूल जो बिछवा दिए हैं ||
उम्र भर जो बुतपरस्ती से लड़े थे |
हमने उनके बुत भी अब बनवा दिए हैं ||
छांट कर शातिर से शातिर लोग हमने |
राजधानी में सभी भिजवा दिए हैं ||
कल वही पेपर में टीचर पूछ लेगा |
सब सवालात आज जो समझा दिए हैं ||
साब जबसे बन गए फूफा हमारे |
डॉग भी इम्पोर्टेड मंगवा दिए हैं ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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