Monday, 14 November 2011

सीधी सादी हैं ग़ज़लें


सीधी   सादी   हैं   ग़ज़लें |
दिल  को  छूती हैं ग़ज़लें ||

उर्दू  ईमाँ  है  इन  सबका |
ये  हिन्दी  की  हैं  ग़ज़लें || 

दिल की बंजर धरती पर |
फ़स्लें   होती   हैं  ग़ज़लें ||

सब  टूटे  दिल  वालों  को |
राहत   देती   हैं    ग़ज़लें || 

गंगा -जमुनी  महफ़िल में |
हरदम   छाती  हैं   ग़ज़लें || 

क्या अन्दर क्या बाहर  है ?
सब  बतलाती  हैं   ग़ज़लें || 

कितना   झुठलाना  चाहो |
पर  सच कहती हैं ग़ज़लें ||

आईना  सब  के दिल का |
झट बन जाती  हैं ग़ज़लें ||

दरिया बन कर ख़्वाबों का |
मन  में  बहती  हैं  ग़ज़लें || 

चाहे  जो  भी  हो   सबके |
अन्दर  बसती हैं  ग़ज़लें || 

डा ०  सुरेन्द्र  सैनी  

Sunday, 13 November 2011

निग़ाहें ग़लत हैं


निग़ाहें    ग़लत    हैं    तमाशाईयों   की |
नुमाईश   न   कीजेगा   अंगड़ाईयों  की ||

तबीयत  न  तुम  पूछो      शैदाईयों  की |
इनायत  रही  इन  पे  पुरवाईयों      की ||

नवाज़ा  मुझे  कह  के  क़ाफ़िर  सभी  ने |
परस्तिश  जो  की  तेरी  परछाईयों  की ||

मेरी  ज़िंदगी  में  ये  धुंध   बन  के  छाई |
करामात    देखो    इन   तन्हाईयों   की ||

मैं  समझा -बुझा  के  इसे  थक  गया  हूँ |
है  दिल  क़ैद  में अब  भी  रानाईयों  की ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

Thursday, 10 November 2011

एक दफ़ा बस


एक   दफ़ा   बस  टूट  के    दरिया   बहना   था |
फिर  तो  सभी  कमज़ोर  क़िलों को  ढहना था || 

टूट गया दिल आज अगर तो  तअज़्जुब  क्या ?
इश्क़  में  इक  दिन  तो   यह होकर  रहना था ||

लोग    तसल्ली   दे  सकते   थे   क्या    करते ?
दर्द    मगर  चुपचाप   हमीं  को    सहना    था || 

वक़्त   लगाना  ठीक न था इतना  अब    तक |
उनको  अगर  इनकार    पे क़ायम  रहना था ||

खूब  किया   था याद  सबक  वो फ़ुरसत    में |
उनसे   मिले  तो भूल गए   जो   कहना   था ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

याद आने लगी है


याद     आने     लगी     है     किसी      की    गोया     मसरूफ़   हम    हो    गए   हैं /
दास्ताँ     चल     पडी      ज़िंदगी    की      गोया    मसरूफ़    हम     हो    गए   हैं //

जाने     कब    से     पडा    था     निठल्ला    तन    के  कोने  में  बेकार  ये  दिल /
राह        पर     अब     है    ये    बंदगी    की    गोया    मसरूफ़ हम  हो  गए  हैं //

मिलने - जुलने     लगे       दोस्तों      से     आने - जाने    लगे    महफ़िलों  में /
खैरियत  पूछते     हैं    सभी   की     गोया     मसरूफ़    हम      हो    गए   हैं //

छा    गए    थे    घनेरे    जो     बादल    अब    सभी    दूर     जाने   लगे    हैं /
बात    अब    हो    रही    रौशनी   की   गोया    मसरूफ़  हम   हो   गए   हैं //

जिससे  क़ायम  है  इस  दिल  की  धड़कन  नूर आँखों  में ठहरा   हुआ  है /
आरज़ू  है    फ़क़त    इक   उसी  की  गोया   मसरूफ़  हम   हो  गए   हैं //


डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 7 November 2011

चार पैसे दान में


चार  पैसे  दान   में   बस    क्या  दिए  हैं |
शहर   भर  में   पोस्टर   टंगवा   दिए  हैं ||

अब  के  होगी    जीत  पक्की  ही  हमारी |
बस्ती  में  दारू  के  ड्रम   खुलवा  दिए  हैं ||

ये  बशर   जो  सच  के  पर्चे  बांटता  था |
हाथ   इसके   आज   ही  कटवा दिए  हैं || 

जब  भी  पूछा क्या किया है ज़िंदगी  में |
बस  ज़रा  सा  हौले  से  मुस्का दिए  हैं || 

आज आमद है किसी लीडर की  शायद |
रास्तों  पर  फूल  जो   बिछवा  दिए  हैं || 

उम्र  भर  जो  बुतपरस्ती   से   लड़े   थे |
हमने  उनके  बुत भी अब बनवा दिए हैं || 

छांट  कर  शातिर से शातिर लोग हमने |
राजधानी   में   सभी   भिजवा  दिए   हैं || 

कल  वही   पेपर   में  टीचर पूछ    लेगा |
सब  सवालात आज जो समझा दिए  हैं || 

साब  जबसे  बन  गए  फूफा       हमारे |
डॉग   भी     इम्पोर्टेड   मंगवा  दिए   हैं || 

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 6 November 2011

दवा पे ज़िंदा हूँ


दवा  पे  ज़िंदा  हूँ |
दुआ पे  ज़िंदा  हूँ ||

तुम्हारे दामन की |
हवा  पे  ज़िंदा  हूँ ||

किसी की शर्मीली |
अदा  पे  ज़िंदा  हूँ || 

हमेशा   यारों   की | 
वफ़ा पे   ज़िंदा  हूँ ||

फ़क़त  सच्चाई  की |
बिना पे    ज़िंदा  हूँ ||  

अभी तो मौला की |
रज़ा पे  ज़िंदा  हूँ   || 

विरासत  में  पाई |
अना पे  ज़िंदा  हूँ || 

सफ़ीना टूटा      है |
ख़ला पे  ज़िंदा  हूँ ||  

किसी से चाहत की |
सज़ा पे  ज़िंदा  हूँ   || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Thursday, 3 November 2011

परदा रुख़ -ए -रौशन


परदा  रुख़ -ए -रौशन  से  हटा  क्यूँ  नहीं  देते ?
चेहरे  के  गुलिस्ताँ  को  हवा क्यूँ   नहीं   देते ? 

दीदार  की  उम्मीद  में  बुत   बने    खड़े      हैं |
दीवानों   में  हलचल  सी  मचा क्यूँ  नहीं  देते ? 

ईनाम  -ए -मुहब्बत  में  सजायें  सभी  मंज़ूर |
इलज़ाम  कोई  हम  पे  लगा क्यूँ  नहीं  देते ? 

ख़ाली  तो  न  होगा  कभी  आखोँ  का  समंदर |
दो  घूँट  हमें  इनसे  पिला क्यूँ   नहीं       देते ? 

सीने  में  धड़कता  है  ये  दिल  आपकी  ख़ातिर |
तो  आप  भी  ये  रिश्ता  निभा क्यूँ  नहीं    देते ? 

यूँ  आप  ही  देते  सदा   क़ातिल    को   बढ़ावा |
इलज़ाम  लगाते  हो  सज़ा क्यूँ      नहीं    देते ? 

दिल  में  नए  एहसास  जगा  लीजिये  भी  अब |
बेकार  की  बातों  को  भुला क्यूँ      नहीं    देते ?

चुप्पी  बनी  है  आपकी   लोगों        में  पहेली |
क्या  हल  है  पहेली  का  बता क्यूँ  नहीं  देते ? 

प्यासी  ज़मीं  के      वास्ते  बरसात   ज़रूरी |
भीगी  हुईं  ज़ुल्फ़ों  को  हिला क्यूँ नहीं  देते ? 

हम  भी  तो  समझते  हैं  सभी  तौर -तरीक़े |
फिर  आप  हमें  घर का  पता क्यूँ  नहीं देते ? 

आने  न  कभी  देंगे  तेरे  पास   को  ई  ग़म |
इन  हाथों  में  ये  हाथ  थमा क्यूँ  नहीं  देते ? 

डा०  सुरेन्द्र  सैनी